कुछ साल पहले दिल्ली जाना हुआ, सुबह सुबह श्रीधाम एक्सप्रेस पकड़ी, दिल्ली तक की ट्रेन और सुबह का वक़्त इसलिए ट्रेन ज्यादा भरी हुई नहीं थी, एक जगह सीट मिल गयी, आमने-सामने की सीट थी, 7-8 सवारी बैठी थी........ ट्रेन चली तो सामने खिड़की से सटकर बैठे एक सज्जन ने अपने बैग से मूंगफली निकाली, खा खा कर छिलके नीचे ही फर्श पर यहां वहां विसर्जित कर दिए..... और खा पी कर मुह साफ़ कर बैठ गए........
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कोई एक घंटे बाद आगरा निकलते बात चीत का दौर शुरू हो गया....... क्रिकेट, क्रिकेट से राजनीति, राजनीति से व्यवस्थाओं तक चर्चा खिसक कर विदेश जा पहुँची...... बातों का कारवां अमेरिका, चीन, जापान से होता हुआ साफ़ सफाई पर आ ठहरा...... भारत में कितनी गन्दगी है भाई...... विदेशों में कितनी साफ़ सफाई रहती है...... जापानियों का साफ़ सफाई में कोई तोड़ नहीं, अंग्रेजों का कोई सानी नहीं..........
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सामने खिड़की से बैठे सज्जन कुछ ज्यादा ही चौड़े हो गए, रोब झाड़ते हुए बोले अरे भई फॉरेन कंट्री का हिन्दुस्थान से क्या मुकाबला.... वहां के शहरों की तो बात ही मत कीजिये, एक बार मैं फ्रांस गया था..... पेरिस को देख कर दंग रह गया, चमचमाती सड़कें, साफ़ सुथरे फुटपाथ, मैनेर्स से चलते बतियाते लाइन में लगकर तरीके से खरीददारी करते और शांति बनाये रखते लोग, कहीं कोई धक्का मुक्की नहीं, पब्लिक प्लेस हो या बस, टैक्सी, ट्रेन.... सभी जगह पर साफ़ सफाई एक नम्बर........... अपना देश तो डस्टबिन बना हुआ है साहब......... यूरोप की तो बात ही अलग है, उसका हर एक शहर चमक मारता है चमक.......????
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उन्होंने मेरी और देखकर अपनी बातों पर मेरी सहमति का ठप्पा चाहां, मैं बहुत देर से चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, तपाक से बोला..... हाँ अंकल बिलकुल सही, वो क्या है कि वहां के लोग ट्रेन में मूंगफली खा कर छिलके फर्श पर नहीं फेंकते.............
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अंकल के कान में धमाका हो गया, जो मुंह अभी बात चीत करते समय हैलोजन ट्यूब की तरह खिल रहा था अब डिम लाइट में जलने को तरस रहे बल्ब की तरह बुझ गया, आसपास से खी खी खी के स्वर फूटे....... और अंकल बुरा सा मुह बनाते हुए चुप हो गए....... नई दिल्ली आने तक बातचीत तो होती रही पर साफ़ सफाई पसंद अंकल एक शब्द भी नही बोले, स्टेशन पर उतरने के बाद भी नज़रों से ओझल होने तक वे मुझे खिसियाये से देखते रहे........
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अंग्रेज अपने क्लबों, दफ्तरों और स्कूलों के बाहर indians and dogs are not allowed के बोर्ड टांगते थे, यानी हमें कुत्तों के बराबर मानते थे........ कुछ लोग इस पर शिकायत करते हैं, नाराज होते हैं लेकिन मैं नाराज नहीं होता, आलोचना नहीं करता और ना ही बुरा मानता....... क्योंकि आजादी की 68 सालों बाद भी जिस देश के लोगों को सड़क पर चलना नहीं आया, लोगों से सलीके से बात करना नहीं आया, साफ़ सफाई करना नहीं आया...... हगना, मूतना, थूकना नहीं आया वे 250 साल पहले कैसे रहे होंगे आप खुद सोच सकते हो...........
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सड़क पर चलते चलते किधर भी मुड़ जाते हैं कुछ पता नहीं, आते जाते वाहनों को देखना हराम है, जहाँ सुनसान दीवार मिली मूतने लग जाते हैं, पटरी किनारे हगने लग जाते हैं......... कोई कोना मिला पिच्च से थूक दिया............ मूंगफली खायी सड़क पर बिखेर दी, चिप्स खायी लिफाफा फेंक दिया, पानी पीया बोतल फेंक दी....... हमारी ट्रेन, बस से लेकर पब्लिक प्लेसेस तक सब गंदे पड़े हैं........... बस घर चमका रखे हैं......... साफ़ सफाई बरतना नहीं आता लेकिन सरकार प्रशासन को कोसना बखूबी आता है......... प्रशासन क्या करे झाडू तसला दे कर हर एक के पीछे एक सफाई कर्मचारी लगा दे.... जाओ पीछे पीछे और ये जंहा भी थूके, हगे, मूते या कुछ भी फेंके साफ़ करते चलना, साहब फलानी रियासत के नवाब हैं और गन्दगी इन्हें बिलकुल भी बर्दास्त नहीं......
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हम चाहते हैं कि हमारे शहर हेलसिंकी, पेरिस या क्वेटो बनें लेकिन हम फिनलेण्डीअन, फ्रेंच या जापानियों जैसे नहीं बनना चाहते वही 250 साल पहले के हिन्दुस्तानी ही बने रहना चाहते हैं........ हम चाहते हैं कि कोई दूसरा ही हमारे पोतड़े धोये, हम बस बैठकर या तो लेक्चर देंगे या गंदगी का रोना रोयेंगे, लेकिन खुद के हाथ नहीं सानना चाहेंगे........ क्योंकि गन्दगी तो हमें बिलकुल भी पसंद नहीं, सफाई पसंद नवाब जो ठहरे.........
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विदेशों में साफ़ सफाई से सम्बंधित अच्छी आदतें वहां के लोगों के जीवन जीने के तरीकों में इस कदर शामिल हैं कि ये आदते एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से गमन कर जाती हैं लेकिन हम भारतीय ना तो खुद इन्हें अपनाते हैं और ना ही अपनी पीढ़ियों तक पहुंचाते है........ विदेश से लौटकर हम विदेशियों की साफ सफाई की आदतों का गुणगान तो करते घूमते हैं लेकिन उन्हें कभी अपनाते नहीं है...... इसके अलावा जब हम विदेश घूमकर आते हैं, अपनों को विदेशियों की साफ़ सफाई के बारे में खूब बताते हैं लेकिन ये कभी नहीं सोचते कि विदेशी भारत से जा कर भारतीयों की साफ़ सफाई के बारे में अपने लोगों को क्या बताते होंगे..... सोचिये..............
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देश बदलना है तो पहले खुद को बदलना होगा, जब तक खुद नहीं बदलेंगे तब तक ना तो बनारस क्वेटो बनने से रहा और ना ही भारत जापान...... फिर चाहे हम कितनी भी smart cities बना लें, लोग यहां-वहां कोनों में मूतते थूकते या सुबह सुबह ट्रेनों की पटरियों पर फारिग होते ही दिखेंगे....... और चाहे कितनी भी smart ट्रेनें चला लें ट्रेन से टोंटी, मग्गा और साबुन यूंही चोरी होती रहेंगी........ अगर हम नहीं बदले तो हम वही रहेंगे 250 साल पहले के भारतीय, जिनके लिए Indian and dogs are not allowed की तख्तियां अब दीवार पर तो नहीं लेकिन दिलो-दिमाग में जरूर लटकी रहेंगी..........
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कोई एक घंटे बाद आगरा निकलते बात चीत का दौर शुरू हो गया....... क्रिकेट, क्रिकेट से राजनीति, राजनीति से व्यवस्थाओं तक चर्चा खिसक कर विदेश जा पहुँची...... बातों का कारवां अमेरिका, चीन, जापान से होता हुआ साफ़ सफाई पर आ ठहरा...... भारत में कितनी गन्दगी है भाई...... विदेशों में कितनी साफ़ सफाई रहती है...... जापानियों का साफ़ सफाई में कोई तोड़ नहीं, अंग्रेजों का कोई सानी नहीं..........
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सामने खिड़की से बैठे सज्जन कुछ ज्यादा ही चौड़े हो गए, रोब झाड़ते हुए बोले अरे भई फॉरेन कंट्री का हिन्दुस्थान से क्या मुकाबला.... वहां के शहरों की तो बात ही मत कीजिये, एक बार मैं फ्रांस गया था..... पेरिस को देख कर दंग रह गया, चमचमाती सड़कें, साफ़ सुथरे फुटपाथ, मैनेर्स से चलते बतियाते लाइन में लगकर तरीके से खरीददारी करते और शांति बनाये रखते लोग, कहीं कोई धक्का मुक्की नहीं, पब्लिक प्लेस हो या बस, टैक्सी, ट्रेन.... सभी जगह पर साफ़ सफाई एक नम्बर........... अपना देश तो डस्टबिन बना हुआ है साहब......... यूरोप की तो बात ही अलग है, उसका हर एक शहर चमक मारता है चमक.......????
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उन्होंने मेरी और देखकर अपनी बातों पर मेरी सहमति का ठप्पा चाहां, मैं बहुत देर से चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, तपाक से बोला..... हाँ अंकल बिलकुल सही, वो क्या है कि वहां के लोग ट्रेन में मूंगफली खा कर छिलके फर्श पर नहीं फेंकते.............
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अंकल के कान में धमाका हो गया, जो मुंह अभी बात चीत करते समय हैलोजन ट्यूब की तरह खिल रहा था अब डिम लाइट में जलने को तरस रहे बल्ब की तरह बुझ गया, आसपास से खी खी खी के स्वर फूटे....... और अंकल बुरा सा मुह बनाते हुए चुप हो गए....... नई दिल्ली आने तक बातचीत तो होती रही पर साफ़ सफाई पसंद अंकल एक शब्द भी नही बोले, स्टेशन पर उतरने के बाद भी नज़रों से ओझल होने तक वे मुझे खिसियाये से देखते रहे........
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अंग्रेज अपने क्लबों, दफ्तरों और स्कूलों के बाहर indians and dogs are not allowed के बोर्ड टांगते थे, यानी हमें कुत्तों के बराबर मानते थे........ कुछ लोग इस पर शिकायत करते हैं, नाराज होते हैं लेकिन मैं नाराज नहीं होता, आलोचना नहीं करता और ना ही बुरा मानता....... क्योंकि आजादी की 68 सालों बाद भी जिस देश के लोगों को सड़क पर चलना नहीं आया, लोगों से सलीके से बात करना नहीं आया, साफ़ सफाई करना नहीं आया...... हगना, मूतना, थूकना नहीं आया वे 250 साल पहले कैसे रहे होंगे आप खुद सोच सकते हो...........
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सड़क पर चलते चलते किधर भी मुड़ जाते हैं कुछ पता नहीं, आते जाते वाहनों को देखना हराम है, जहाँ सुनसान दीवार मिली मूतने लग जाते हैं, पटरी किनारे हगने लग जाते हैं......... कोई कोना मिला पिच्च से थूक दिया............ मूंगफली खायी सड़क पर बिखेर दी, चिप्स खायी लिफाफा फेंक दिया, पानी पीया बोतल फेंक दी....... हमारी ट्रेन, बस से लेकर पब्लिक प्लेसेस तक सब गंदे पड़े हैं........... बस घर चमका रखे हैं......... साफ़ सफाई बरतना नहीं आता लेकिन सरकार प्रशासन को कोसना बखूबी आता है......... प्रशासन क्या करे झाडू तसला दे कर हर एक के पीछे एक सफाई कर्मचारी लगा दे.... जाओ पीछे पीछे और ये जंहा भी थूके, हगे, मूते या कुछ भी फेंके साफ़ करते चलना, साहब फलानी रियासत के नवाब हैं और गन्दगी इन्हें बिलकुल भी बर्दास्त नहीं......
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हम चाहते हैं कि हमारे शहर हेलसिंकी, पेरिस या क्वेटो बनें लेकिन हम फिनलेण्डीअन, फ्रेंच या जापानियों जैसे नहीं बनना चाहते वही 250 साल पहले के हिन्दुस्तानी ही बने रहना चाहते हैं........ हम चाहते हैं कि कोई दूसरा ही हमारे पोतड़े धोये, हम बस बैठकर या तो लेक्चर देंगे या गंदगी का रोना रोयेंगे, लेकिन खुद के हाथ नहीं सानना चाहेंगे........ क्योंकि गन्दगी तो हमें बिलकुल भी पसंद नहीं, सफाई पसंद नवाब जो ठहरे.........
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विदेशों में साफ़ सफाई से सम्बंधित अच्छी आदतें वहां के लोगों के जीवन जीने के तरीकों में इस कदर शामिल हैं कि ये आदते एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से गमन कर जाती हैं लेकिन हम भारतीय ना तो खुद इन्हें अपनाते हैं और ना ही अपनी पीढ़ियों तक पहुंचाते है........ विदेश से लौटकर हम विदेशियों की साफ सफाई की आदतों का गुणगान तो करते घूमते हैं लेकिन उन्हें कभी अपनाते नहीं है...... इसके अलावा जब हम विदेश घूमकर आते हैं, अपनों को विदेशियों की साफ़ सफाई के बारे में खूब बताते हैं लेकिन ये कभी नहीं सोचते कि विदेशी भारत से जा कर भारतीयों की साफ़ सफाई के बारे में अपने लोगों को क्या बताते होंगे..... सोचिये..............
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देश बदलना है तो पहले खुद को बदलना होगा, जब तक खुद नहीं बदलेंगे तब तक ना तो बनारस क्वेटो बनने से रहा और ना ही भारत जापान...... फिर चाहे हम कितनी भी smart cities बना लें, लोग यहां-वहां कोनों में मूतते थूकते या सुबह सुबह ट्रेनों की पटरियों पर फारिग होते ही दिखेंगे....... और चाहे कितनी भी smart ट्रेनें चला लें ट्रेन से टोंटी, मग्गा और साबुन यूंही चोरी होती रहेंगी........ अगर हम नहीं बदले तो हम वही रहेंगे 250 साल पहले के भारतीय, जिनके लिए Indian and dogs are not allowed की तख्तियां अब दीवार पर तो नहीं लेकिन दिलो-दिमाग में जरूर लटकी रहेंगी..........
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