Saturday 20 February 2016

Ravish Kumar and Gang Exposed. Perfect reply given to them.

कुछ कमियां हम पत्रकारों की भी है। चने के झाड पर चढ़ा देते हैं। रविश कुमार को हर तरह की छूट दी गई। वो बिहार जाकर लालू की चमचा ग्री करें फिर भी महान पत्रकार , अरविंद केजरावाल के लिए समा बांधे फिर भी बडे पत्रकार। कांग्रेस पर टिप्पणी करने से बचें फिर भी ऊंचे पत्रकार। केवल उन्मादी किस्म के हिंदू संगठनों पर कहें और उन्मादी किस्म के मुस्लिम संगठनों पर न कह पाएं फिर भी निर्भीक पत्रकार।
पिछली बार प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में गया था। अजीब नजारा। शोशेबाजी। बडे बडे विज्ञापन। हिंदी के मानो दो ही लेखक हों इस सदी के। एक तो रविश कुमार दूसरा सचिन तेंदुलकर। माफ करना दोनो ही किताबें, औसत दर्जे की। हालांकि इन किताबों का स्वागत होना चाहिए। क्योंकि एक पत्रकार ने लिखी , दूसरी महान क्रिकेटर ने। लेकिन इन किताबों में ऐसा कुछ नहीं था, जितना हाइप्रोफाइल किया गया। सब कुुछ सुनियोजित। लगा प्रेम की अनुभूति पर विश्व को झकझोरने वाली कोई किताब आई हो।
एक बडे भाई ने फेसबुक पर लिखा था कि मैने तो रविश की दस किताब एक साथ खरीद ली ताकि दूसरों को बांट सकूं। अगर रविश वाकई संजीदा हों तो उस व्यक्ति की इस टिप्पणी से झला सकते थे। पर जमाना दूसरी तरह का है । बाद में देखा तो फेसबुक में लिखने वाले भाई खुशी से बल्ले बल्ले था। उनकी टिप्पणी काम कर गई। यही जीवन है । यही राजनीति के मंच पर भी होता है। फिर कदम कदम पर होता है। एक चापलूस ने लिखा कि रवीश की किताब के बाद प्रेम के आयाम बदले हैं।
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इंशा अल्ला देश के टुकडे कर देंगे वालों के लिए मखमल में लपेट कर बातें होती है और दूसरे गरियाए जाते हैं । मानों यही सब कुछ तय करने वाले हों। यही से विचार शुरू होता हो। विरोध और समर्थन का एक गहरा गणित होता है। आसानी से समझ में नही आता। पर यह खूंखार गणित है। लोगों की भावनाओं से खेले जाने वाल गणित है। क्योंकि अभी भी लोग विश्वास कर लेते हैं कि पत्रकार जो कुछ कह रहा होगा, सही कह रहा होगा। उन्हें यह पता नहीं होता कि उनकी मासूमियत से नेता ही नहीं, पत्रकार भी खेलते हैं। गौर नहीं किया इन चंद पत्रकारो ने कि जिस दिन जेएनयू में नारे लग रहे थे , उसी दिन सिंयाचिन से कुछ ताबूत भी आ रहे थे।
सवाल यही है कि दिल्ली में बैठे दस पंद्रह पत्रकारों के गैंग ने यह माहौल बना दिया है कि वो जो कह रहे हैं वही भारतीय पत्रकारिता है। जबकि पत्रकारिता का यही सबसे बडा अभिशाप है। पत्रकारिता केवल दिल्ली के प्रंदह लोगों से तय नहीं होती। रवीश पत्रकारो के प्रवक्ता नहीं है। महज एक पत्रकार है। इसी तरह ओम थानवी, राजदीप बरखा या दीपक चौरसिया भी भारतीय पत्रकारिता के अधिकृत प्रवक्ता नहीं है।
पर माहौल ऐसा बनाया जाता है कि जैसे इन दस बारह लोगों का कहना ही भारतीय पत्रकारिता की आवाज हो। यह छद्म टूटना चाहिए। यह भ्रम टूटना चाहिए। न रविश, न थानवी , न दीपक चौरसिया न राजदीप, हमारे प्रवक्ता हैं। न ही इनकी बातें , देश के पत्रकारों की आवाज हैं। इनके अपने क्या स्वार्थ हैं और कहां ये सच हैं, उसे निजी तौर पर देखा जाना चाहिए। वह पूरे मीडिया की आवाज नहीं। अगर ऐसा होता है तो यह पाप है छल है। यह माना जाएगा कि पत्रकारिता पर इन लोगों ने अंकुश जमा दिया है। समाज का भले के लिए पत्रकारिता की आवाज गांव कस्बों से आनी चाहिए। इन दिल्ली के चंद पत्रकारों ने जिस तरह पत्रकारिता को जकड़ लिया है, उससे आजादी चाहिए। वरना ये खतरनाक है। इन्होंने अपनी आवाज को ही देश की आवाज मान लिया है।

Via~अमर उजाला के वेद उनियल 

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