Sunday 13 September 2015

इस्कॉन या अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (International Society for Krishna Consciousness - ISKCON)

इस्कॉन या अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (International Society for Krishna Consciousness - ISKCON), को दुनिया "हरे कृष्ण आंदोलन" के नाम से भी जानती है।

संस्था के संस्थापक श्रीसील प्रभुपाद अपने गुरु के आदेश पर बहुत अल्प संस्थानों के साथ एक मालवाहक जलयान के द्वारा पहली बार 1965 में न्यूयार्क गए थे और वहां 1966 में ISKCON की स्थापना की थी। इसके बाद लगातार बारह साल तक स्वामी प्रभुपाद अनवरत दुनिया भर में घूमते रहे और छः महाद्वीपों में हिंदुत्व और श्रीकृष्ण के पावन सन्देश को फैलाया जिसके नतीजे में आज हरेकृष्ण आन्दोलन का विस्तार सारी दुनिया में है और देश-विदेश में इसके अनेक मंदिर और विद्यालय है।

श्रीसील प्रभुपाद की हिन्दू धर्म, भगवद गीता, भागवत आदि पर की रचनाएं सारी दुनिया में श्रीकृष्ण के पावन सन्देश को फैला रही है। इस्कॉन ने अपने विचारों के माध्यम से दुनिया भर के लाखों लोगों को हिन्दू विचारों से जोड़ा है।

आज भारत से बाहर के लाखों महिलाओं को साड़ी पहने चंदन की बिंदी लगाए व पुरुषों को धोती कुर्ता और गले में तुलसी की माला पहने देखा जा सकता है। लाखों ने मांसाहार तो क्या चाय, कॉफी, प्याज, लहसुन जैसे तामसी पदार्थों का सेवन छोड़कर शाकाहार शुरू कर दिया है। वे लगातार ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ का कीर्तन भी करते रहते हैं।

इस्कॉन ने पश्चिमी देशों में अनेक भव्य मन्दिर एवम् विद्यालय बनवाये हैं। इस्कॉन के अनुयायी विश्व में गीता, हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं। ये तो है इस्कॉन और कामों का संक्षिप्त विवरण पर इसके साथ जुड़ी एक बड़ी बात है जो यहाँ चर्चा योग्य है।

मेरे एक गैर-हिन्दू दोस्त ने मुझसे ये बात पूछी थी कि हिन्दू धर्म के मूल स्वभाव में अपने मत का विस्तार करना नहीं है, आप किसी को उसका मजहब तब्दील करने पर विवश नहीं करते न ही ऐसी आकांक्षा रखतें हैं परन्तु इस्कॉन के कार्यों को देखकर ये सवाल उठाये जा सकतें हैं कि ये लोग भी तो वही कर रहें हैं जो इस्लाम का दावत देने वाले और मिशनरी लोग करतें हैं, फिर दोनों में अंतर कहाँ हैं?

इसका जबाब "धर्म और मजहब में अंतर" के विषय के आधार पर दिया जा सकता है। 

1. जब कोई मिशनरी या दावती आपको अपने मत में आने का आमंत्रण देता है तो उसकी पहली चोट आपके धर्म, आपके विचार, आपकी मान्यताओं पर होता है और दूसरा आपके आदर्शों, श्रद्धा पुरूषों और श्रद्धा केन्द्रों पर, मसलन वो आपसे पूछेगे बुतों के इबादत की गंदगी से खुद को पाक कर लिया? अपने गलत-अकीदों को छोड़ दिया? अब इनको नहीं मानोगे न ?? वगैरह-वगैरह.

2. मिशनरी या दावती का आग्रह आपसे मनवाने पर टिका होता है , उनका सवाल कुछ इस तरह का होगा, आप मानते हैं कि अल्लाह एक है ? आप मानते हैं कि ईसा खुदा का बेटा है? आप मानते है कि फलाना आसमानी किताब है? जबकि इस्कॉन मानने नहीं जानने पर जोर देती है। यहाँ आपको साधना और संयम विधि बताई जायेगी और उसका अनुपालन करिए, अगर संतुष्टि है यानि जान गए तो ठीक वर्ना कोई बात नहीं, यहाँ मनवाने की कोई बात नहीं होती।

3. इस्कॉन विचार में कभी भी आपको ईसा के बारे में एक शब्द भी नकारात्मक सुनने-पढ़ने को नहीं मिलेगा बल्कि कई बार अगर ईसाई भी ईसा पर सवाल उठाये तो इस्कॉन ईसा के साथ ही खड़ा दिखता है, जबकि मिशनरी या दावती के कामों की शुरुआत ही आपके श्रद्धा-पुरुषों के चरित्र-हनन से होती है।

4. मिशनरी या दावती जब आपको अपने मत में बुलाते हैं तो आपके कोमल मन को उन कामों को करने से उकसाते हैं जो आपने कभी नहीं किया मसलन अगर आप हिन्दू हैं और अपने जीवन में कभी अंडा भी नहीं खाया और बीअर भी नहीं पी है पर मतान्तरित होते ही आपसे बीफ खाने या शराब रूपी प्रसाद का पान करने को कहा जाता है ताकि आपके इस रूपांतरण को लेकर कोई शंका न रहे उनके मन में।

5. इस्कॉन में जादू देखो-जादू वाली कोई बात नहीं है, जैसे आप जाकिर के दस रोज़ा पीस आलमी कांफ्रेंस में गए और बदल गए या मिशनरी की चंगाई सभा में जाकर मजहबी रूप से चंगे हो गए। यहाँ लम्बी आध्यात्मिक प्रक्रिया है, आप इस्कॉन के द्वारा स्थापित विधि-विधान को करिए, तब तक करिए जब तक आपको संतुष्टि नही हो जाती, अगर नहीं होती तो आप जैसे हैं वैसे रहिये, कोई अंतर नहीं आएगा।

6. इस्कॉन आकर आप तामसिकता से सात्विकता की ओर आते हैं , हिंसा से अहिंसा की और आते हैं, अपना जीवन मांस-मदिरा में गुजारते रहने वाले इस्कॉन में आकर मांस-मदिरा सेवन तो दूर उल्टा गौपालक हो जाते हैं, गाय और उसके बछड़े और बछिया में अपनी संतान भाव देखकर उसे पुचकारते हैं, जबकि उस तरफ आपको कुर्बानी देकर अपने परिवर्तन का सर्टिफिकेट देना होगा। नीचे चित्रों को देखिये ,पश्चिम के कलुषित संस्कारों में पली-बढ़ी इन कन्याओं का हिन्दू धर्म में आकर गौमाता और बछड़ों के प्रति प्रेम देखिये , ममत्व देखिये और दूसरी तरह पशु-क्रूरता की तस्वीरें।

क्या उपरोक्त बातें और ये तस्वीरें धर्म और मजहब के अंतर को स्पष्ट नहीं कर देती?

आभार-अभिजीत सिन्हा

No comments:

Post a Comment